कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी गोवत्वद्वादशी के नाम से जानी जाती है। इस व्रत में गोमाता का पूजन किया जाता है।
सतयुग में महर्षि भृगु के आश्रम में भगवान शंकर के दर्शन की अभिलाषा से करोड़ों मुनिगण तपस्या कर रहे थे। एक दिन उन तपस्यारत मुनियों को दर्शन देने के लिए भगवान शंकर एक बूढ़े ब्राह्मण का वेष बनाकर आए। उनके साथ सवत्सा गौ के रूप में माता पार्वतीजी भी थीं। वृद्ध ब्राह्मण बने भगवान शंकर महर्षि भृगु के पास जाकर बोले- हे मुने। मैं यहां स्नानकर जम्बूक्षेत्र में जाऊंगा और दो दिन बात लौटूंगा, तब तक आप इस गाय की रक्षा करें।
मुनियों द्वारा इस बात की प्रतिज्ञा करने पर ब्राह्मण रूपधारी भगवान शंकर अंतध्र्यान हो गए और फिर थोड़ी देर में बाघ के रूप में प्रकट होकर बछड़े सहित गौ को डराने लगे। ऋषिगण भी बाघ से भयभीत हो गए तब उन्होंने गाय की रक्षा के लिए ब्रह्मा से प्राप्त भयंकर शब्द करने वाले घंटे को बजाना प्रारंभ किया। जिसे सुनकर भगवान शंकर अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए और माता पार्वती भी अपने मूल स्वरूप में लौट आईं। भगवान की लीला देख सभी मुनियों ने उनका विधि पूर्वक पूजन किया। उस दिन कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी थी इसलिए यह व्रत गोवत्सद्वादशी के रूप में प्रारंभ हुआ।
एक अन्य कथा :राजा उत्तानपाद की रानी सुनीति इस व्रत को किया करती थी, जिसके प्रभाव से उन्हें ध्रुव जैसा पुत्र प्राप्त हुआ। आज भी माताएं पुत्ररक्षा व संतान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं।
Tuesday, November 2, 2010
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